बाबा साहब भीम राव आंबेडकर लाइफ एंड मिशन :- 2

 

विनम्र निवेदन

यह कोई कहानी नहीं बल्कि बाबा साहब भीम राव आंबेडकर की जीवन गाथा है जिसे मैने “ बाबासाहेब आंबेडकर लाइफ एंड मिशन “ किताब से लिया है

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बाबासाहेब के पूर्वज : बहादुर फौजी, नाथ व कबीरपंथी

डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर का पूरा नाम था, भीमराव रामजी अंबेडकर। महाराष्ट्र के रत्नागिरी जिले के मंडणगढ़ तहसील में दापोली के पास एक छोटा सा गांव है, आंबडवे। यही बाबासाहेब के पुरखों का गांव है। भीमराव की माताजी का नाम भीमाबाई और पिताजी का रामजी सकपाल था। दादाजी का नाम मालोजी सकपाल था। सकपाल इनके परिवार के कुल का नाम है जो उनका भूषण व गौरव माना जाता है। वह हिन्दू धर्म में अछूत समझी जाने वाली महार जाति से थे। उनके पूर्वज गांव में धार्मिक त्योहारों के समय देवी-देवताओं की पालकियां उठाने का काम किया करते थे।

बहादुर लेकिन कथित नीची जाति के कारण महारों को अच्छी सरकारी नौकरियां, पुलिस विभाग या इज्जत वाले काम धंधे नहीं मिलते थे। इन्हें रास्तों की सफाई करना, शौचालय साफ करना, जूते बनाना, गांव की चौकीदारी, मरे मवेशियों की खाल उतारना, बांस की चीजें बनाना आदि हेय समझे जाने वाले काम करने के लिए मजबूर होना पड़ता था। खेतों में भी दास व गुलामों की तरह बेगार कराई जाती थी। महारों का कोई जातिगत व्यवसाय नहीं था। खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा पर भी कई पाबंदिया लगी होती थी। हर ओर अपमान व शोषण के कारण इस बहादुर व बुद्धिमान कौम का जीवन नारकीय व पशुओं से भी बदतर था। इन अछूतों पर हिन्दू समाज की ओर से धार्मिक, शैक्षणिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और व्यवसायिक शोषण व अन्याय की अति थी। सवर्ण हिंदुओं को महारों की छाया से भी घृणा थी और पेशवा काल में तो इनकी दशा बहुत दयनीय थी। इन्हें इंसान तो समझा ही नहीं जाता था। गुलामी की बेड़िया इतनी मजबूती से बंधी हुई थी कि मेहनतकश अछूत समाज बहुत दुखी था और निठल्ला वर्ग इनकी कमाई पर ऐशो आराम की जिंदगी गुजार रहा था।

महार जाति की बस्ती गांव से बाहर की ओर होती थी, जिसे सवर्ण लोग नफरत से 'महारवाड़ा' कहते थे। इतिहासकारों का मानना है कि महार महाराष्ट्र के मूलनिवासी थे और उन्ही के नाम पर 'महार-राष्ट्र' या 'महाराष्ट्र' नाम पड़ा। महार शब्द की उत्पति महा-अरि से मानी जाती है यानी बड़ा दुश्मन। इस जाति के लोग मजबूत कद काठी वाले, रौबिली आवाज, बुद्धिमान व बहादुर लड़ाकू प्रवृति के होते थे। इसी कारण राजा-महाराजाओं द्वारा सेना में महारों को प्राथमिकता से रखा जाता था। उस समय भारत में आने वाले यूरोपीयन लोगों ने बहादुर महारों की पहचान करने में देर नहीं की और ईस्ट इंडिया कंपनी की बॉम्बे आर्मी में महार रेजिमेंट की स्थापना कर भर्ती की गई।

दरअसल ब्रिटिश सेना में भर्ती होना गरीब महारों की मजबूरी थी। सवर्ण इन्हें नीच समझकर दुत्कारते थे और पेशवाओं की सेना में इन्हें भर्ती नहीं किया जाता था। इसलिए अपने परिवार के पालन के लिए ब्रिटिश सेना में भर्ती हुए, जहां जात-पांत को नहीं देखा जाता था। मुगलों, मराठों व पेशवाओं की सेना में भी कुछ महार थे। शुरू में ब्रिटिश सरकार की सेना में एक भारतीय फौजी सूबेदार मेजर पद तक पहुंच सकता था। इसी कारण कई महार फौजी सूबेदार व मेजर पद तक पहुंचे भी थे। सवर्णो को यह हजम नहीं हुआ कि अछूत फौजी अफसरों को सेल्यूट क्यों दें? उन्होंने अंग्रेजों को महारों के खिलाफ भड़काया, आखिर सन् 1892 में अछूत जातियों की सेना में भर्ती पर रोक लगा दी। सन् 1898 में गटेकर कमीशन के फैसले के बाद महार अछूतों को सेना से बाहर कर दिया और जाति के आधार पर राजपूत, मराठा, सिख, गोरखा आदि रेजिमेंट की स्थापना की गई।


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